पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने एक सिविल मामले में दर्ज FIR को रद्द करते हुए कहा कि सिविल विवाद निपटाने के लिए कानून मशीनरी के दुरुपयोग का चलन खतरनाक रूप से बढ़ रहा है। कोर्ट ने हरियाणा, पंजाब व चंडीगढ़ की अदालतों को आदेश दिया है कि ऐसा करने वालों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई का आदेश जारी करें।
हाईकोर्ट के फैसले के अनुसार जांच एजेंसी अक्सर सिविल मामलों में विभिन्न प्रकार के दबाव में आकर झुक जाती हैं और अभियोजन आरंभ कर देती हैं। मुख्य रूप से सिविल विवाद को दूसरे पक्ष पर समझौते का दबाव बनाने के लिए त्वरित तंत्र के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। हाईकोर्ट ने ऐसे विवादों के निचली अदालतों में चलने की निंदा की और कहा कि संवैधानिक न्यायालय को कष्टप्रद अवांछित आपराधिक अभियोजन में फंसे उत्पीड़ित नागरिकों के बचाव में आना पड़ता है।
कोर्ट ने कहा कि लेनदेन की शुरुआत से बेईमान इरादे की अनुपस्थिति में, अनुबंध या समझौते का उल्लंघन आपराधिक कार्रवाई को जन्म नहीं दे सकता। जब तक शुरुआत में बेईमानी का इरादा मौजूद न हो, आपराधिक कार्रवाई पूरी तरह से अनुचित है। हाईकोर्ट के जस्टिस हरप्रीत सिंह बराड़ ने चरणजीत शर्मा और एक अन्य की याचिका पर सुनवाई करते हुए ये आदेश पारित किए हैं। इस मामले में याचिकाकर्ताओं ने पंजाब के धूरी थाने में धोखाधड़ी और संबंधित आरोपों के लिए 30 नवंबर 2016 को दर्ज एक FIR को रद्द करने के लिए याचिका दाखिल की थी।
चार दिसंबर 2015 को जमीन बेचने का एक समझौता हुआ था और शिकायतकर्ता को अपनी जमीन बेचने के समझौते के अनुसरण में बयाना राशि के रूप में 25 लाख रुपये लिए लेकिन भूमि पंजीकरण के लिए आगे नहीं आए। कोर्ट ने कहा कि शिकायतकर्ता ने पहले ही याचिकाकर्ता के खिलाफ सिविल कोर्ट में मुकदमा दायर कर दिया था। इस कारण आपराधिक कार्रवाई नहीं होनी चाहिए थी।
…तो शिकायतकर्ता फंसेगा
अगर ट्रायल कोर्ट सुनवाई के समापन के बाद पाती है कि दोनों पक्षों के बीच शामिल विवाद पूरी तरह से सिविल है। शुरू से ही धोखाधड़ी के इरादे की मूल सामग्री गायब है और FIR यांत्रिक तरीके से दर्ज की गई है तो ट्रायल कोर्ट को शिकायतकर्ता के खिलाफ आईपीसी के तहत कार्रवाई शुरू करना चाहिए।